नई दिल्ली (ब्यूरो): कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण के बीच दुनियाभर के देशों के एक्सपर्ट टीके की तलाश में है। इसी बीच Moderna Inc. ने दावा किया है कि उसका पहला ट्रायल सफल हुआ है। इसकी वैक्सीन के जरिए शरीर में एंटीबॉडीज बन रही हैं, जो वायरस के हमले को काफी कमजोर बना देती हैं। हालांकि ये पहला ट्रायल होने के कारण छोटे ग्रुप पर किया गया है लेकिन तब भी डर के इस माहौल में ये पहली बड़ी खबर मानी जा रही है।

कैसे हो रहा है ट्रायल

वैक्सीन का ट्रायल अलग-अलग स्टेज में हो रहा है। इसके तहत देखा जा रहा है कि दवा का शरीर पर कैसा असर होता है और इसमें कितना वक्त लगता है। साथ ही साइड इफैक्ट पर भी ध्यान दिया जा रहा है। सिएटल में 45 स्वस्थ लोगों पर हुए परीक्षण के दौरान उन्हें वैक्सीन के दो कम मात्रा वाले शॉट्स दिए गए। इस दौरान उनके शरीर में कोरोना से लड़ने वाली एंटीबॉडीज दिखाई दीं। ये नतीजे पहले अप्रूव हो चुके किसी टिपिकल वैक्सीन की तरह ही दिख रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक इस बारे में कंपनी के CEO स्टीफन बेंसल ने बताया कि एंटीबॉडी का बनना एक अच्छा लक्षण है जो वायरस को बढ़ने से रोक सकता है। बता दें कि मॉडर्ना जनवरी से ही इस वैक्सीन पर काम कर रही है, जबसे चीन के विशेषज्ञों ने कोरोना वायरस का जीनोम सीक्वेंस अलग किया था।

क्या दिखे साइड इफैक्ट

किसी भी वैक्सीन की तरह इसके भी मामूली दुष्परिणाम फिलहाल दिखे हैं। जैसे एक व्यक्ति जिसे वैक्सीन का बड़ा डोज दिया गया था, उसमें बुखार, मांसपेशियों में तेज दर्द जैसे लक्षण दिखे। वहीं एक व्यक्ति, जिसे मिडिल डोज मिला था, उसके शरीर में जहां इंजेक्शन लगा था, उसके आसपास की त्वचा लाल हो गई। इसके अलावा ज्यादातर में बुखार, उल्टियां, मसल पेन, सिरदर्द जैसे साइड इफैक्ट दिखे। ये सारे ही लक्षण लगभग एक दिन में ठीक हो गए।

कब होगा दूसरे चरण का ट्रायल

माना जा रहा है कि ये जुलाई के आसपास होगा, हालांकि कंपनी का कहना है कि वे इसे जल्दी से जल्दी करने की कोशिश करेंगे। ये 600 लोगों पर होगा। इसमें वैक्सीन की अलग-अलग डोज देकर देखा जाएगा कि कम से कम साइड इफैक्ट के साथ वैक्सीन की कितनी मात्रा तय की जानी चाहिए। वैसे आमतौर पर पहले चरण के ट्रायल के बारे में इतनी चर्चा नहीं की जाती है लेकिन चूंकि कोरोना से पूरी दुनिया प्रभावित है और किसी सकारात्मक खबर के इंतजार में है, इसलिए मॉडर्ना ने फर्स्ट ट्रायल के बारे में भी विस्तार में बताया।

कैसे काम करती है वैक्सीन

इसके तहत वायरस या उसके प्रोटीन का असक्रिय हिस्सा लिया जाता है और जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिए उसे वैक्सीन फॉर्म में लाया जाता है। जब ये शरीर में इंजेक्ट किया जाता है तो शरीर में प्रतिक्रिया स्वरूप एंटीबॉडीज बनने लगती हैं। ये ठीक वैसा ही है, जैसे एक बार बीमार हो चुके व्यक्ति के शरीर में उस बीमारी के लिए एंटीबॉडी बन जाती है। मॉडर्ना इसके लिए RNA तकनीक का इस्तेमाल कर रही है। इस वैक्सीन के भीतर जाते ही RNA शरीर की कोशिकाओं को एंटीबॉडी बनाने का निर्देश देते हैं। वैसे दूसरी बीमारियों के लिए पहले अप्रूव हो चुकी वैक्सीन की तुलना में RNA तकनीक नई है लेकिन जल्द से जल्द बीमारी का इलाज खोजने के लिए ये तरीका निकाला गया।

क्या है क्लिनिकल ट्रायल

ये एक तरह की मेडिकल रिसर्च होती है, जिसमें दवा या वैक्सीन की जांच लोगों पर होती है। किसी खास बीमारी की पहचान, इलाज या उसकी रोकथाम के लिए ये जांच होती है, जो ये समझने में मदद करती हैं कि दवा या टीका सेफ भी है और असरदार भी। दवाओं और टीके के अलावा मौजूदा दवाओं में किसी नई खोज, किसी नए चिकित्सा उपकरण का भी क्लिनिकल ट्रायल हो सकता है।

ट्रायल 3 चरणों में होता है

फिलहाल मॉडर्ना का ये दूसरा चरण होगा। इसका मकसद इस बात की जांच करना है कि दवा या वैक्सीन की ज्यादा खुराक या कितनी ज्यादा खुराक ली जाए, जिसका शरीर पर कोई साइड इफेक्ट न हो। इस दौरान बहुत बारीकी से देखा जाता है कि शरीर दवा पर कैसे प्रतिक्रिया करते हैं।ये भी हो सकता है कि प्री रिसर्च और फेज जीरो में जो परिणाम दिखे हों, इस स्टेप के नतीजे उससे एकदम अलग हों। असर खराब होने पर ट्रायल रोकना होता है। यही वो फेज है, जिसमें ये तय होता है कि दवा को कैसे दिया जाए, जिससे वो ज्यादा असर करे यानी सीरप के रूप में, कैप्सूल की तरह या फिर नसों के जरिए।

कौन शामिल हो सकते हैं ट्रायल में

कई वजहों से लोग क्लिनिकल ट्रायल का हिस्सा बनते हैं। जैसे कुछ लोग अपनी बीमारी से हार चुके होते हैं और सोचते हैं कि नई दवा से कुछ तो होगा। कुछ लोग इस वजह से जुड़ते हैं क्योंकि उनकी बीमारी का कोई इलाज नहीं है। ट्रायल का हिस्सा बनें, इससे पहले वैज्ञानिक उन्हें उनकी बीमारी और उसके मौजूदा यानी वर्तमान में चल रहे इलाज के बारे में बताते हैं। साथ ही नए परीक्षण की पूरी जानकारी दी जाती है कि इसमें क्या होगा और उनके शरीर पर कैसा असर हो सकता है। ये बातें प्री-रिसर्च में सामने आई बातें ही होती हैं। क्लिनिकल रिसर्च में स्वस्थ लोग भी जुड़ते हैं जो किसी बीमारी से बचाव में दुनिया की मदद करना चाहते हैं या फिर जो अपने किसी परिजन की बीमारी ठीक करने की इच्छा रखते हों। सिर्फ आपकी हां ही काफी नहीं, ट्रायल के लिए आपके हेल्थ की जांच भी होती है। सब ठीक होने पर सहमति पत्र साइन किया जाता है और फिर ट्रायल की शुरुआत होती है। इसमें लगातार आपकी निगरानी होती है।